Monday, December 23, 2024

“तानसेन समारोह प्रसंगवश”: जब तानसेन बोले अब दाहिने हाथ से किसी को जुहार नहीं करूँगा…..

ग्वालियर :  महान कला पारखी एवं संगीत मर्मज्ञ राजा मानसिंह की मृत्यु और उनके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण ग्वालियर के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। इसी दौरान गान महर्षि तानसेन ग्वालियर से बृंदावन चले गए। वहाँ पर उन्होंने स्वामी हरीदास के सानिध्य में अपनी गायकी को और ऊँचाईयों तक पहुँचाया । ग्वालियर से जाने के बाद तानसेन बैराग्य जैसा जीवन व्यतीत करने लगे थे। उस कालखंड में बघेल खंड के राजा रामचन्द्र की कला धर्मिता की चर्चा देश भर में छाई थी। तानसेन भी राजा रामचंद्र की सभा की ओर आकर्षित हुए और वहाँ पहुँचकर पूरे हिंदुस्तान में विख्यात हो गए।

 

गान मनीषी तानसेन ने एक तरह से राजा रामचंद्र की राजसभा में सदा के लिए रहने का मन बना लिया था। उनकी मौजूदगी से राजसभा हमेशा संगीत कला से गुंजायमान रहने लगी। इसी बीच जब मुगल बादशाह अकबर के सिपहसलार जलाल खाँ कुर्ची ने राजा रामचंद्र की सभा में पहुँचकर तानसेन को ले जाने का शाही फरमान सुनाया तो राजा रामचन्द्र बहुत दु:खी हुए।

तानसेन के वियोग की आशंका से उनकी आँखों से बच्चों के समान अश्रुधारा बह उठी। बादशाह अकबर ने सेना के साथ जलाल खाँ कुर्ची को तानसेन को लेने के लिये भेजा था। जाहिर है राजा रामचन्द्र तानसेन को सौंपने के लिये विवश हो गए।

 

लोक इतिहासकारों ने राजा रामचन्द्र से तानसेन के वियोग की घटना का रोचक ढंग से वर्णन किया है। डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक “तानसेन” में एक अनुश्रुति का हवाला देते हुए तानसेन की मार्मिक विदाई के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि तानसेन को सौंपने की बात सुनकर राजा रामचन्द्र बच्चों के समान रो उठे। जैसे-तैसे समझा-बुझाकर तानसेन ने उन्हें शांत किया। राजा रामचन्द्र ने बहुमूल्य वस्त्र तथा मणि-माणिक्यों से जड़ित अलंकार भेंट कर तानसेन को एक चौडोल (विशेष प्रकार की पालकी) में बिठाया और पूरे नगर में विदाई जुलूस निकाला।

 

नगरवासी तानसेन को विदा करने काफी दूर तक जुलूस के अंदाज में साथ में चले। मार्ग में तानसेन को प्यास लगी और उन्होंने अपनी चौडोल रूकवाई। तानसेन देखते हैं कि स्वयं राजा रामचन्द्र उनके चौडोल की एक बल्ली को कंधा दिए हुए हैं। राजा के तन पर न वस्त्र हैं और न पैरों में जूते। यह दृश्य देखकर तानसेन भाव-विव्हल होकर रोने लगे। विदाई के ये मार्मिक क्षण देखकर साथ में मौजूद सैनिक तक अपनी आँखों के आँसू नहीं रोक सके।

 

राजा रामचन्द्र ने अपने दिल को कठोर कर तानसेन से कहा कि हमारे यहाँ ऐसी रीति है कि जब किसी स्व-जन की मृत्यु हो जाती है तो उसके परिजन अस्थि विमान को कंधा देते हैं। मुगल बादशाह ने आपको हमारे लिए मार ही डाला है। बमुश्किल अपनी आँखों से बह रही अश्रुधारा को रोकते हुए तानसेन बोले राजन आपने मेरे लिए क्या – क्या कष्ट नहीं सहे। मैं आपके इन उपकारों का बदला चाहकर भी नहीं चुका सकता। पर मैं आज एक वचन देता हूँ कि जिस दाहिने हाथ से आपको जुहार (प्रणाम) की है, उस दाहिने हाथ से मैं अब दूसरे किसी भी शख्सियत को जुहार नहीं करूंगा। यह सुनकर राजा रामचन्द्र ने तानसेन की ओर से नजरें फेर लीं और दु:खी हृदय से अपनी राजधानी की ओर गमन किया तो तानसेन ने आगरा की राह पकड़ी। अनुश्रुति है कि तानसेन ने अपने इस वचन को जीवन भर निभाया।

 

राजा रामचन्द्र का पड़ाव रूखसत हुआ, तब तानसेन ने राग “बागेश्री” चौताला में एक ध्रुपद रचना का गायन किया। जिसके बोल थे – 

“आज तो सखी री रामचन्द्र छत्रधारी, गज की सवारी लिए चले जात बाट हैं।

कित्ते असवार सो हैं, कित्ते सवार जो हैं, कित्ते सौ हैं बरकदार अवर कित्ते आनंद के ठाठ” ।।

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