ग्वालियर। अगर सही राह से मंजिल की दूरी तय की जाए तो सरकारी योजनाएं आपके चेहरे पर मुस्कान ला सकती हैं। जब कहीं से भी मदद का आसरा न दिखे तो सरकार सहारा देती है। कुछ हितग्राही ऐसे हैं जिन्होंने सही प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी बात रखी तो उनको न सिर्फ आर्थिक मदद मिली, बल्कि जो काम शुरू किया उसको आगे बढ़ाने में भी सहायता मिली है। जबकि अनेक हितग्राहियों को इलाज में होने वाले खर्च से निजात मिली है। आज कुछ ऐसे ही हितग्राहियों द्वारा उन्हीं की जुबानी में बताई गई कहानी को हम सिर्फ शब्द दे रहे हैं। यह कहानी उनकी है जिनको सहायता मिली तो उनकी भविष्य को लेकर चिंता मिटी है, चेहरे खिले हैं और अब जीवन भी आसान हो गया है।
कहानी-1
कान्ता मौर्य
निवासी:-नाका चन्द्रबदनी,ग्वालियर
-शहर के वार्ड-56 के अंतर्गत चंद्रबदनी नाका क्षेत्र की निवासी कान्ता मौर्य ने बताया कि उनके पति एक दुकान पर प्राइवेट नौकरी करते हैं। पति की कमाई से घर की रोजी-रोटी तो जैसे-तैसे चल जाती है लेकिन मुसीबत के वक्त को लेकर हमेशा चिंता बनी रहती है। कांता कहती हैं कि जब मेरे प्रसव का वक्त आया तो सबसे ज्यादा चिंता प्रसव का खर्च और घर में नए शिशु के आगमन पर पौष्टिक आहार के इंतजाम को लेकर रही। उस समय आंगनवाड़ी से सलाह मिली और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाय) ने 5 हजार रुपए की सहायता मिली। जिससे सुरक्षित प्रसव भी हुआ और प्रसव के बाद पौष्टिक आहार के रूप में बिसवार के लड्डू भी बन सके। इसके अलावा मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना से भी हर महीने 1250 रुपए मिल जाते हैं। इससे अब दैनिक खर्च में दिक्कत नहीं आती।
कहानी-2
दिव्यांग सतीश
निवासी: त्यागीनगर मुरार
त्यागीनगर मुरार निवासी दिव्यांग सतीश ने स्नातकोत्तर तक शिक्षा हासिल की है। सतीश का कहना है कि बचपन से ही शिक्षक बनने का सपना था। इसके लिए खूब मन लगाकर पढ़ाई की और वाणिज्य विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन करके राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा यूजीसी नेट की तैयारी के लिए कोचिंग जॉइन कर ली। वाहन न होने से कोचिंग तक समय से पहुंचने की चुनौती बनी हुई थी। क्योंकि पहले ही दिन कोचिंग पहुंचने में देर होने पर विषय वस्तु को समझने में मुश्किल आई। सतीश ने बताया कि अपनी दिव्यांगता को लेकर थोड़ी सी निराशा भी हुई थी। आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर न होने की वजह से वाहन खरीदना बेहद मुश्किल था। हाल ही में भारत संकल्प यात्रा के अंतर्गत टप्पा तहसील मुरार में लगे शिविर में मोटराइज्ड ट्राइसकिल (ई-रिक्शा) मिली तो अब कोचिंग जाना आसान हो गया है।
हितेन्द्र सिंह भदौरिया (लेखक सहायक जनसंपर्क अधिकारी हैं)