भगवान श्रीराम के जीवन दर्शन ने भारतीय सांस्कृतिक ताने बाने को बहुत ही गहराई के साथ प्रभावित किया है। भगवान श्रीराम के जीवन दर्शन का प्रत्येक पहलू अपने आप में एक प्रेरणा पुंज है। उन्होंने चौदह वर्ष के वनवास के समय मित्रता और त्याग के वे मानदंड स्थापित किये, जो आज भी भारतीयों के जीवन में प्रतीक के रूप में स्थापित है। राम मित्रता और त्याग की प्रतिमूर्ति है। राम ने निःसंकोच होकर आदिवासियों, पशु-पक्षियों, वंचितों आदि से मित्रता कर सहयोग लिया और अपनी इस मित्रता को जीवन परयंत निभाया। राम की मित्रता सामाजिक बन्धनों और मान्यताओं से मुक्त थी। उन्होंने निषादराज को गले लगाकर ऊँच-नीच और अस्पृश्यता की मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया। वहीं उन्होंने आदिवासी तपस्वनी सबरी के जूठे बेर खा कर अपने भक्त को सर्वोच्च सम्मान दिया।
भगवान श्रीराम ने वंचित सुग्रीव से मित्रता की, वो चाहते तो बाली से मित्रता कर सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वंचित सुग्रीव से मित्रता की और उसे उसका राजपाठ दिलाया। वंचित सुग्रीव से मित्रता करके समाज में यह मत स्थापित किया कि जो अपने मित्र के दुख को स्वयं का दुख मानता है, वही सच्चा मित्र होता है। श्रीरामचरित मानस में उल्लेखित है कि, श्रीराम यह जानते हुए भी कि सुग्रीव का भाई किष्किन्धा का राजा बालि अत्यन्त बलशाली है तब भी सुग्रीव से मित्रता स्थापित करते हैं और कहते हैं हे मित्र सुग्रीव अब तुम मेरे मित्र हो और तुम्हारा दुख मेरा भी दुख है
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।। (किष्किन्धा काण्ड 6-1)
हे सुग्रीव जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से भी बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान बड़ा भारी जाने। इस प्रकार राम ने अपने मित्र के दुख को पर्वत के समान माना है। श्रीरामचरित मानस में उल्लेखित है कि, श्रीराम अच्छे मित्र के गुणों को भी बताते हुए कहते है कि, मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रगट करें और अवगुणों को छिपाव, देने-लेने में मन में शंका न रखें। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं-
’’जिनके असिमति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनहि दुरावा।। (किष्किन्धा काण्ड 6-2)
’’देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।
विपत्तिकाल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्रगुन एहा।। (किष्किन्धा काण्ड 6-3)
भगवान श्रीराम सुग्रीव को भरोसा दिलाते है कि, मित्र चिन्ता छोड़ों और मुझ पर विश्वास करो मैं सभी प्रकार से तुम्हारी सहायता करूंगा। श्रीरामचरित मानस में उल्लेखित है कि, भगवान श्रीराम सुग्रीव को समझाते –
’’सेवक सठ नृप कृपन सुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहु बल मोरे। सब विधि घटब काज मैं तोरे।। (किष्किन्धा काण्ड 6-5)
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा मेरे बल पर अब तुम चिन्ता छोड़ दो, मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा।
इसी प्रकार भगवान श्रीराम अपमानित और लंका से निर्वासित विभीषण को निःसंकोच गले लगा, लेते है क्योंकि राम शरणागत को कभी अपने से दूर नहीं करते वे कहते है –
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।। (सुन्दरकाण्ड, 43.1)
’’अनुज सहित मिलि ढिंग बैठारी। बोले वचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुशल कुठाहर बास तुम्हारा।। (सुन्दर काण्ड 45-2)
भगवान श्रीराम ने बिना किसी राग द्वेष, लोभ लालच के निःसंकोच होकर विभीषण को लंका का राजपाट देने का संकल्प लिया। क्योंकि राम को मित्र और मित्रता प्रिय थी, न की सोने की लंका –
’’रावन क्रोध अनल निज, स्वास समीर प्रचंड।।
जरत विभीषनु राखेउ, दीन्हेउ राज अखण्ड।।
जो सम्पत्ति शिव रावनहि, दीन्हि दिए दस माथा।।
सोई सम्पदा विभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ।। (सुन्दर काण्ड, 49(क), 49(ख)