कहा जाता है जब इतिहास मौन साध लेता है वहाँ जनश्रुतियाँ मुखर हो उठती हैं। तानसेन के राजा रामचंद्र की राजसभा में पहुँचने और वहाँ से अकबर बादशाह के दरबार के लिए बांधवगढ़ से उनकी विदाई के संबंध में बहुत ही मनोरंजक व मार्मिक किंवदंतियाँ मिलती हैं।
डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक “तानसेन” में एक किंवदंती का हवाला देते हुए लिखा है कि जब ग्वालियर की संगीत मंडली बिखरने लगी तब तानसेन ने भी बैरागी का भेष धारण कर ग्वालियर से बांधवगढ़ की ओर प्रस्थान किया। जब वे बांधवगढ़ के राजमहल की ओर बढ़ रहे थे तब महल के प्रहरी ने उन्हें रोक लिया और कहा कि बिना राजा की आज्ञा के आप महल में प्रवेश नहीं कर सकते। राजा का आदेश है कि जब वे पूजा में बैठे हों तो किसी को भी राजमहल में प्रवेश न दिया जाए। यह सुनकर तानसेन निराश नहीं हुए अपितु अपना तानपूरा लेकर राजप्रसाद के पीछे बैठ गए और तान छेड़ी कि तानसेन द्वारा गाई गई उस बंदिश के बोल थे “तू ही वेद, तू ही पुराण, तू ही हदीस, तू ही कुरान । तू ही ध्यान, तू ही त्रभवनेश” ॥
तानसेन के मधुर गायन से राजा रामचंद्र का सम्पूर्ण महल गुंजायमान हो उठा। किंवदंती है कि महल के भीतर राजा जिस शिव-विग्रह की पूजा कर रहे थे तानसेन की गायकी के चमत्कारी प्रभाव से शिव मूर्ति का मुख राजा की ओर से हटकर उस ओर हो गया जिस ओर से तानसेन के गायन की स्वर लहरियां फूट रहीं थी। यह चमत्कार देखकर राजा रामचंद्र घोर आश्चर्य से भर गए और दौड़ते हुए महल के पीछे यह देखने के लिए पहुँचे कि आखिर इतना मधुर संगीत किसके कंठ से प्रस्फुटित हो रहा है। राजा रामचंद्र तानसेन के चरणों में गिर पड़े और क्षमा याचना माँगी। इसके बाद उन्होंने तानसेन को अपनी राजसभा में सम्मानजनक स्थान दिया।
ग्वालियर के अमर गायक संगीत सम्राट तानसेन के सम्मान में पिछले 99 वर्षों से ग्वालियर में शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित महोत्सव “तानसेन समारोह” आयोजित हो रहा है। इस साल इस महोत्सव का शताब्दी वर्ष है।