कैकई के राम
by Prashant Soni
माता कैकई रामायण का एक महान चरित्र, श्री राम जी जब अपनी लीला का विस्तार करना चाहते है तो उन्होंने उस कार्य के लिए अपनी माता कैकई को ही चुना जी हां “अपनी माता कैकई” यह स्वयं उनको गर्भ मे धारण करने वाली माता कौशल्या जी ही कहती है।
जब माता कैकई श्री राम जी के लिए वनवास मांगती है तब श्री दशरथ जी श्री राम को अनेक प्रकार से समझते है, राम तुम अयोध्या पर आक्रमण कर दो मुझे हरा दो मुझसे राज्य छिन लो, उस समय में जब एक स्त्री के कहने पर वनवास मिल सकता था, तो एक माता के कहने पर श्री राम रुक भी सकते थे।
जब राम माता कौशल्या से वन जाने के लिए आज्ञा लेते जाते है तो कौशल्या जी स्वयं कहती है की राम मैं तुम्हारी माता नहीं हूँ, मैं तो भरत की माता हूँ, हां जब तुम छोटे थे तब तुमने सबसे पहले अपनी तोतली बोली मे कैकई को ही माता कहा था, मुझे तो भरत ने माता कहा था, तुम अपनी माता कैकई की ही आज्ञा का पालन करो ओर वन को जाओ मेरे पास मेरा पुत्र भरत हैं।
माता कैकई श्री राम जी को वन भरतजी के लिए नहीं भेजती, उस समय मे एक परंपरा ओर भी थी जब भी कोई चक्रवर्ती सम्राट पद पर आसीन होता था तो राज्याभिषेक से पहले उसे उस सम्पूर्ण क्षेत्र के मानचित्र पर बैठा कर पूजन कर के फिर पद पर आसीन किया जाता था, परंतु एस राष्ट्र जिसमे निशाचर वास कर रहे हो ओर कुछ क्षेत्र पर रावण का आतंक हो, वह राज्य राम के अनुकूल नहीं था, माताएं हमेशा अपने पुत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ ही चाहती है, परंतु उसके लिए पुत्र को कष्ट न हो एस भी चाहती है।
पर माता कैकई ने एसा नहीं चाहा वो राम के लिए ही नहीं बल्कि प्रजा के लिए, जो राम को अत्यंत प्रिय थी, राम को तैयार करती है, वे सीता को महारानी के रूप मे देखती है, वे लक्ष्मण को अंगरक्षक के रूप मे देखती है, वही भरत मे भक्त को देखती हैं ओर वे ही शत्रुघन को योग्य संचालक के रूप मे भी देखती है।
राम के लिए, लक्ष्मण, भरत सबका सुखों का त्याग करते है, शत्रुघन, उर्मिला, मांडवी, श्रुतकीर्ति राज्य ओर भोगों के बीच मे भी रहते हुए भी सभी का त्याग ही करते है, परंतु माता कैकई अपने सुहाग का त्याग करने से भी पीछे नहीं रहती, वे लोकाचार मे यह लांछन भी लेती है की कोई भी अपनी बेटी का नाम कैकई नहीं रखता।
जय सियाराम
बहुत ही रोचक