sanjay bhardwaj
एक बार एक गोपी यमुना किनारे बैठी प्राणायाम कर रही थी। तभी वहाँ नारद जी वीणा बजाते हुए आये। नारद जी बड़े ध्यान से देखने लगे। और सोचने लगे कि गोपी कर क्या रही है? क्योकि व्रज में कोई ध्यान लगाये ये बात उन्हें हजम ही नहीं हो रही थी।
बहुत देर तक विचार करते रहने पर भी उन्हें समझ नहीं आया, तो वे गोपी के और निकट गए और गोपी से बोले, हे देवी !! ये आप क्या कर रही हैं? बहुत देर तक विचार करने पर भी मुझे समझ नहीं आ रहा, क्योकि व्रज में कोई ध्यान लगाये, वो भी इस तरह प्राणायाम आदि नियमों सहित, ऐसा तो व्रज में कभी सुना नहीं, फिर ऐसा क्या हो गया कि आपको ध्यान लगाने की आवश्यकता पड़ गई?
गोपी बोली, हे नारद जी, मै जब भी कोई काम करती हूँ, तो काम तो कर नहीं पाती, हर समय वो नंद का छोरा आँखों से ध्यान से निकलता ही नहीं है। घर लीपती हूँ तो गोबर में वही दिखता है, लीपना तो वहीं छूट जाता है और कृष्ण के ध्यान में ही डूब जाती हूँ, रोटी बनाती हूँ तो जैसे ही आटा गूँथती हूँ, तो नरम-नरम आटा में कृष्ण के कोमल चरणों का आभास होता है, आटा तो वैसा ही रखा रह जाता है और में कृष्ण की याद में खो जाती हूँ। कहाँ तक बताऊ नारद जी, जल भरने यमुना जी जाती हूँ, तो यमुना जी में, जल की गागर में, रास्ते में, हर कहीं नंदलाला ही दिखायी देते हैं। मै इतना परेशान हो गई हूँ कि कृष्ण को ध्यान से निकालने के लिए ध्यान लगाने बैठी हूँ।
संतों, मुनियों और सिद्ध जनों को भगवान को याद करने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है, और धन्य है गोपी की महिमा, जो अपने ध्यान से श्रीकृष्ण को निकालने के लिए ध्यान में बैठ जाती है। गोपी की हर क्रिया में कृष्ण हैं, गोपी ने अपने हृदय में केवल श्रीकृष्ण को बैठा रखा है।
गोपी प्रेम की भिक्षा दीजिए, जैसे भी हूँ मोहे आपको कर लीजीए
भक्ति हो तो, गोपियों जैसी !! ऐसे ही नहीं भगवान गोपियों को अपना सर्वश्रेष्ठ भक्त मानते थे। भगवान कहते हैं कि जो मुझसे जितना प्रेम करता है मैं भी उससे उतना प्रेम करता हूँ, जिसने हमे सब कुछ दिया, उसको हम प्रेम के सिवा दे ही क्या सकते हैं।