Thursday, January 30, 2025

अपने होने के कर्तव्य का पालन करने की पराकाष्ठा का नाम है रामायण

धर्मेंद्र त्रिवेदी”दिव्य”

अयोध्या एक ऐसी नगरी जिसे साकेत भी कहा जाता है, इस नगरी में राम जन्म लेते हैं। जन्म के बाद से लेकर विवाह तक हर स्थिति में शिक्षा है। इसके बाद त्याग की कहानी शुरू होती है, एक ऐसी कहानी जिसमें कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। ऐसे लगता है कि जैसे त्याग की प्रतियोगिता चल रही हो और कोई भी किरदार दूसरे स्थान पर नहीं रहना चाहता।

राम कथा में दृष्टांत आता है कि राम वन गमन को चले गए हैं। लक्ष्मण अपने बड़े भाई राम और सीता के साथ वनवास स्वीकार चुके हैं। भरत राम से मिलकर दूर कहीं एक कुटिया बनाकर रह रहे हैं। शत्रुघ्न भी बड़े भ्राता भरत के अनुगामी हो चुके हैं। अब अगर सांसारिक दृष्टि से देखें तो पारिवारिक विघटन दिखना चाहिए था, लेकिन हुआ क्या यह विचार योग्य है, त्याग की पराकाष्ठा भी है। एक ऐसी कथा जिसमें एक ही परिवार के चार भाई और चार बहनें नव विवाहित हैं। विवाह की मेंहदी भी नहीं छूटी और विछोह अंतर्मन को सुलगा रहा है। एक उर्मिला है, जिसने लक्ष्मण जी के समक्ष विछोह प्रदर्शित नहीं किया बल्कि कठोर तप का वरण कर लिया। एक मांडवी है, जो दूर कहीं जल रहे दीपक की उपस्थिति से ही भरत ह्रदय की धड़कन को पहचान रही है। एक श्रुतिकीर्ति है जो उर्मिला की ही भांति तप में रत है। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं। सभी नव वधुएं अपने वरिष्ठ के लिए अपने होने के कर्तव्य का पालन करने को पराकाष्ठा तक जाने के लिए कृत संकल्पित हैं।

कथानक के अनुसार चौदह वर्ष में से तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। एक रात माता कौशल्या को देर रात छत पर आहट सुनाई दी। नींद खुली तो पता चला कि श्रुतिकीर्ति हैं, माता ने बुलाया और कारण पूछा तो दूसरी ओर सिर्फ चुप्पी। माता अपनी पुत्रवधू के ह्रदय में पनपी 13 वर्ष की विकलता को पहचान गईं और फिर उसी समय पहरुओं को लेकर नंदीग्राम पहुंचीं तो जिस कुटिया में भरत हैं, उसी के बाहर एक शिला पर शत्रुघ्न मिले। मां के स्पर्श से शत्रुघ्न की तंद्रा भंग हुई और वे चरणस्पर्श कर बोले मां मुझे बुला लिया होता। मां ने पूछा नगर से दूर यहां क्यों हो। शत्रुघ्न बोले भैया राम पिता की आज्ञा से वन में हैं, लक्ष्मण और भाभी सीता उनके साथ हैं,लेकिन भैया भरत नंदीग्राम में अकेले निवास कर रहे हैं तो फिर ये राजसी वस्त्र, सुखभोग क्या सिर्फ मेरे लिए बनाए हैं।

त्याग की इस कथा के एक अन्य कथानक में आता है कि राजकुमार राम को माता कैकई के वरदान स्वरूप पिता ने 14 वर्ष का वनवास दे दिया है। राम के साथ उनकी पत्नी सीता ने भी हर्ष के साथ आज्ञा स्वीकार ली। उहापोह तब हुआ जब कि राम के अनुगामी लक्ष्मण ने बड़े भाई की सेवा को प्राथमिकता देते हुए वन जाना स्वीकारा। किसी के समझाने का असर नहीं हुआ। माता सुमित्रा से आज्ञा लेने पहुंचे तो उन्होंने सहर्ष आज्ञा दे दी। इसके बाद प्रसंग है कि लक्ष्मण उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़े। वे सोचते जा रहे हैं कि उर्मिला से आज्ञा कैसे लूंगा, उसकी इच्छाओं को अनादर हुआ तो पतिधर्म से विमुखता होगी और रघुवंश में धर्म से च्युत होना तो वर्जित है। लक्ष्मण असमंजस में हैं, लेकिन जब कक्ष के बाहर पहुंचे तो देखते हैं कि उर्मिला प्रसन्न मुद्रा में हैं। प्रसन्न मुद्रा पत्नी उर्मिला ने आरती उतारकर कहा मैं आपको रोकूंगी नहीं और न ही साथ चलने की जिद करूंगी क्योंकि साथ गई तो आपकी सेवा में कमी होने की संभावना रहेगी।

राम कथा भोग की कथा नहीं है बल्कि यह त्याग की कथा है। एक अन्य कथानक को अनुभव करते हैं। राम वनगमन को जा रहे हैं, त्याग की इस प्रतियोगिता में सभी प्रथम स्थान पर हैं, कोई भी एक दूसरे से कमतर नहीं। चारों भाइयों का प्रेम-त्याग और एक दूसरे के प्रति लगाव अलौकिक है। माता सुमित्रा कहती हैं कि उनके दोनों बेटे राम और भरत की सेवा में ही रहेंगे। माता कैकेई विक्षोभ रूपी प्रेम से भरी हैं। प्रेम और त्याग की कहानी में माता कौशल्या निरुत्तर हैं। वे ढाढस और धैर्य को धारण किए हैं। लक्ष्मण के संकोच को उनकी पत्नी उर्मिला दूर कर देती हैं। उर्मिला ने अपने महल के द्वार कभी बंद नहीं किए और तप का कठोर दीपक जलाए रखा। रावण से युद्ध तीसरे मोर्चे पर है। मेघनाद अपने चरम पर युद्धरत है और जीत को निश्चित करने के लिए शक्ति का प्रहार करता है। लक्ष्मण इस शक्ति के प्रहार से मूर्छित हैं। वैद्य सुषेन की सलाह पर हनुमान संजीवनी लेकर लौट रहे हैं। वायुमार्ग से आ रहे हनुमान जब अयोध्या के आकाश में पहुंचे तो प्रतिछाया देखकर भरत ने बाण मार दिया। हनुमान गिरे और फिर उन्होंने वृतांत सुनाया।

 

माता कौशल्या की नसीहत है कि राम बगैर लक्ष्मण के अयोध्या नहीं आ सकते। सुमित्रा कहती हैं कि लक्ष्मण मूर्छित है तो क्या हुआ अभी शत्रुघ्न है, मैं उसे भेज देती हूं। प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा देखकर हनुमान हतप्रभ हैं। उधर, उर्मिला का विश्वास देखिए उन्हें कोई शंका ही नहीं है, वे हमेशा की तरह प्रसन्न और धैर्य की प्रतिमूर्ति लग रही हैं। हनुमान ने पूछा तो बोलीं मेरा दीपक अक्षय है। अगर सिर्फ सूर्योदय तक संजीवनी ले जाने की बात है तो आप विश्राम कीजिए जब तक आप नहीं पहुंचेंगे सूर्य उदित ही नहीं होगा। इसके अलावा जिसका सिर योगेश्वर प्रभु राम की गोद में उसका काल क्या बिगाड़ सकता है। हनुमान आप चिंता मत कीजिये वे बस थोड़ा विश्राम ही कर रहे हैं और कुछ नहीं। वे उठ जाएंगे। यह विश्वास सिर्फ रामायण की उर्मिला, श्रुतिकीर्ति, मांडवी, सीता, कौशल्या, कैकई,सुमित्रा में ही हो सकता है।

 

इन सबमें महत्वपूर्ण एक और कथानक है, जिसका अयोध्या परिवार से दूर-दूर तक नाता नहीं है, लेकिन वह अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए राम की प्रतीक्षा में रत है। हर दिन राह बुहारती है, हर दिन नए फूल-फल चुनती है, रखती है और फिर दूसरे दिन चुनती है। राह बुहारने की, फल-कंद-मूल और फूल चुनने की क्रिया अनवरत जारी है। थकाने वाली प्रतिदिन की इस क्रिया में न कोई खीझ है, न चिंता है, न अविश्वास है और न ही दंभ है। यह बस अपने आराध्य से मिलने का विश्वास है जो शबरी से अनवरत प्रक्रिया कराए जा रहा है और जब यह प्रक्रिया पूरी हुई तो फिर प्रेम भक्ति का अनूठा उदाहरण शबरी के बेर के रूप में सब जानते ही होंगे।

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