Thursday, January 30, 2025

पंचकोष में बसे जीवात्मा के लिए अव्यक्त ब्रह्म और चिदानंद की सत्ता में सूक्ष्मता ही स्थूल

धर्मेंद्र त्रिवेदी”दिव्य”

परब्रह्म अपनी कार्योत्पादिनी त्रिगुणात्मक शक्ति के माध्यम से आकाश, वायु, अग्नि, जल, प्रथ्वी जैसे पांच तत्वों में व्यक्त होता है। इन्हीं पंचभूतों के एकात्म से दृश्य,स्थूल और जड़ श्रष्टि का निर्माण होता है। सत्वगुणी प्रकृति के द्वारा वही ब्रह्म जीव की उपाधि प्राप्त करता है, अभिव्यक्ति के माध्यम से वह करण बनता है और करण जिसमें रहता है, वह प्रकृति और जीव के मिलन से बना आनंदमय कोष है। यह सूक्ष्मता धारण किए है, जीव कर्ता है, करण शरीर है और स्थूल भोक्ता है। चिदानंद की सत्ता में पंचकोष के भीतर मौजूद जीवात्मा के लिए अव्यक्त ब्रह्म और आनंदमयी सत्ता के लिए स्थूल से सूक्ष्मता की ओर जाना अनिवार्य है, बाहर से अंतर की यह यात्रा ही स्व की पहचान कराने में सहायक सिद्ध हो सकती है, अन्यथा तो शोषित, पीडि़त और गलित यात्रा चल ही रही है।

अविद्या के प्रभाव से जीव अपना वास्तविक स्वरूप विस्मृत कर सांसारिक वस्तुओं का भोक्ता बनकर स्थूल तादात्म बैठाकर मैं शरीर हूं यह मानने लगता है, शरीर को मानने से अहंकार प्रबल होता है और भोक्ता एंन्द्रियों की सत्ता में मन के शासन में ही चला जाता है। जीव यह भूल जाता है कि उसकी वास्तविक आवृत्ति आत्मभाव में ही है। अगर सूक्ष्म शरीर की बात करें तो पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये उन्नीस भौतिक करण माने गए हैं। तमोगुण प्रधान प्रकृति के संधान से रक्त, मज्जा, वसा, मांस, अस्थि, मेद और शुक्र इन सात धातुओं से स्थूल शरीर का निर्माण होता है। इसमें रज और शुक्र की प्रधानता रहती है। इस पहले तीन धातु यानि रक्त, मज्जा, मांस पुरुष अंश से और दूसरी तीन धातु यानि वसा, अस्थि और मेद स्त्री अंश से निर्मित होते हैं। शुक्र की प्रकृति सोम प्रधान और रज की प्रकृति अग्नि प्रधान मानी गई है। ज्ञानेन्द्री और कर्मेन्द्री स्थूल को पोषण, वृद्धि आदि संचालन करने का साधन होते हैं। कर्मेन्द्रियों का संचालन अपान, वयान, समान, उदान, प्राण ये पांच प्राण करते हैं, जबकि ज्ञानेन्द्रियों का संचालन नाग, कूर्म आदि उप प्राण करते हैं। सूक्ष्म शरीर जहां वास करता है, उसे कारण शरीर कहते हैं। कारण शरीर को अभिव्यक्त करने वाले विज्ञानमय कोष का वास बुद्धि में, मनोमय कोष का वास मन में और प्राणमय कोष का वास प्राण में होता है।

अंग निर्माण में पंच तत्वों की महत्ता प्रधानरूप से है। आकाश तत्व के चौथाई सत भाग से कर्ण एंद्री, रजभाग के चौथाई भाग से जिव्हा या वाक एंद्री, वायु तत्व के चौथाई सत भाग से त्वचा (स्पर्श) एंद्री, चौथाई रज भाग से हस्त, अग्नि तत्व के चौथाई सत भाग से नेत्र, चौथाई रज भाग से पाद (पैर) कर्मेन्द्री, जल तत्व के चौथाई सत भाग से रसेन्द्री, चौथाई रज भाग से जननेन्द्री, प्रथ्वी तत्व के चौथाई भाग से घ्राण एंद्री, चौथाई रज भाग से गुदा कर्मेन्द्री का निर्माण होता है।

कर्ण, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण ये पांच ज्ञानेन्द्रियां विषय भोग करती हैं, जिव्हा, हाथ, पैर, उपस्थ,गुदा से पांच कर्मेन्द्रीं साधन हैं। मन और बुद्धि वेदांत में भौतिक मो गए हैं। मन,बुद्धि, अहंकार और चित्त से मिलकर अंत: करण और कर्म,कामना, अविद्या पुर्याष्टक कहलाते हैं। प्रारब्ध भोग के पश्चात स्थूल शरीर में स्थित सूक्ष्म शरीर अपना तादात्म्य तोड़ लेता है और इसी निर्वासन को मृत्यु कहते हैं। सूक्ष्म शरीर जब वायु तत्व के साथ मिलता है तो यह यम कहलाता है और अगर कर्मफल मोक्षगामी या पुण्यगामी न हुआ तो सूक्ष्म शरीर वायु के रूप में जीवात्मा को यातना देह के साथ पुनरपि जन्मम-पुनरपि मरणम के चक्र में बांधे रखता है।

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